उन्नीसवीं सदी की घटना है। एक बार बंगाल में भीषण अकाल और महामारी का कहर टूट पड़ा। लोग दाने-दाने को तरसने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया।
ऐसी विकट स्थिति में एक दिन बाजार में एक असहाय बालक एक व्यक्ति से पैसे मांगने लगा-बाबूजी दो पैसे दे दो, बहुत भूखा हूं। उस व्यक्ति ने पूछा- यदि में तुम्हें चार पैसे दूं, तो क्या करोगे? बालक ने जवाब दिया-दो पैसे की खाने की सामग्री लूंगा और दो पैसे मां को दूंगा।
व्यक्ति ने फिर प्रश्न किया-अगर मैं तुम्हें दो आने दूं तो? अब बालक को लगा कि यह व्यक्ति उसका उपहास कर रहा है और वह चलने को हुआ। तब उस व्यक्ति ने बालक का हाथ पकड़ लिया और आत्मीयता से बोला- बताओ दो आने का क्या करोगे? बालके की आंखों में आंसू आ गए। वह बोला-एक आने का चावल लूंगा और शेष मां को दूंगा। मां की प्राणरक्षा हो जाएगी। तब उस व्यक्ति ने बालक को एक रुपया दिया। बालक प्रफुल्लित हो कर चला गया।
वही व्यक्ति कुछ वर्षों बाद एक दुकान के सामने से गुजर रहा था। दुकान पर बैठे युवक की दृष्टि जैसे ही उस व्यक्ति पर पड़ी, वह दौड़कर आया और उसके चरण छूकर विनम्रता के साथ उसे अपनी दुकान पर ले गया। युवक ने अपना परिचय देते हुए कहा-श्रीमान। मैं वही बालक हूं, जिसे आपने अकाल की विभीषिका में दो पैसे मांगने पर एक रुपया दिया था। उसी एक रुपए से मैं यह दुकान खड़ी कर पाया हूं। व्यक्ति ने युवक को सीने से लगाते हुए कहा-बेटे। यह सफलता तुम्हें मेरे एक रुपए के कारण नहीं बल्कि तुम्हारी लगन व परिश्रम के मिली है। वह युवक विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति ईश्वरचंद्र विद्यासागर थे, जिनके जीवन की यह घटना संदेश देती है कि लगन और मेहनत के बल पर कठिनतम लक्ष्यों की प्राप्ति भी की जा सकती है और सफलता की नई ईबारत लिखी जा सकती है।